'फातिमा नामक कोई मुस्लिम शिक्षिका नहीं थी, माफ़ करना, मैंने फर्जी कहानी गढ़ी..', दिलीप मंडल का बड़ा कबूलनामा

'फातिमा नामक कोई मुस्लिम शिक्षिका नहीं थी, माफ़ करना, मैंने फर्जी कहानी गढ़ी..', दिलीप मंडल का बड़ा कबूलनामा
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नई दिल्ली: इतिहास और राजनीति में अक्सर ऐसी कहानियां गढ़ी जाती हैं, जो एक खास उद्देश्य को साधने के लिए बनाई जाती हैं। ऐसी ही एक कहानी हाल ही में चर्चा में आई है, फातिमा शेख की कहानी। दावा किया जाता है कि वह देश की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका थीं, जिन्होंने सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर लड़कियों की शिक्षा के लिए काम किया। कांग्रेस से लेकर तमाम विपक्षी दल भी इस कहानी को बढ़ा चढ़कर बताते हैं, लेकिन अब इस कहानी पर सवाल उठ रहे हैं। 

प्रसिद्ध दलित चिंतक, लेखक और पत्रकार दिलीप मंडल हाल ही में अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर चौंकाने वाला खुलासा किया है। उन्होंने स्वीकार किया है कि "फातिमा शेख" का किरदार पूरी तरह से काल्पनिक था। उनके मुताबिक, फातिमा शेख जैसी कोई ऐतिहासिक हस्ती कभी अस्तित्व में थी ही नहीं। यह नाम उन्होंने ही गढ़ा था, और यह पूरी तरह से एक मनगढ़ंत कहानी है। मंडल ने लिखा कि, "मैंने एक मनगढ़ंत कैरेक्टर बनाया था- फातिमा शेख। कृपया मुझे माफ करें। सच्चाई तो यह है कि कोई फातिमा शेख कभी थी ही नहीं। मैंने यह सब जानबूझकर किया था।"

दिलीप मंडल के इस कबूलनामे से यह बात साफ हो गई कि यह नाम गढ़ने के पीछे एक बड़ा उद्देश्य था। उनका इरादा दलित और मुस्लिम समुदायों के बीच एक कृत्रिम गठजोड़ स्थापित करना था। इतिहास में सावित्रीबाई फुले को महिलाओं की शिक्षा के लिए एक प्रेरणा के रूप में देखा जाता है। लेकिन मुस्लिम समुदाय की तरफ से ऐसी कोई ऐतिहासिक महिला सामने नहीं थी। इस खाली जगह को भरने के लिए “फातिमा शेख” का चरित्र गढ़ा गया।  ताकि समाज में ये सन्देश जाए कि मुस्लिमों ने भी भारत में महिला शिक्षा को बेहतर करने के लिए योगदान दिया, जबकि वो फर्जी था।  

यह कहना गलत नहीं होगा कि इस कथित कहानी के माध्यम से एक राजनीतिक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की गई। दिलीप मंडल ने खुद यह कहा कि 2006 से पहले कहीं भी फातिमा शेख का कोई जिक्र नहीं मिलता। ब्रिटिश दस्तावेज़, सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले के लेखन या उनकी जीवनी में भी इस नाम का कोई उल्लेख नहीं है। कई इतिहासकारों और विशेषज्ञों का मानना है कि अगर फातिमा शेख ने वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा योगदान दिया होता, तो उनका नाम इतनी अस्पष्टता में न खोता, जबकि इस्लाम में तो महिला शिक्षा को ही हराम माना जाता है, कई इस्लामी देशों में ये देखा भी गया है। यह नाम अचानक सोशल मीडिया पर प्रचलित हुआ, जब दलित और मुस्लिम गठजोड़ को मजबूत करने के लिए इस कहानी का प्रचार किया गया। 

बता दें कि, इससे पहले भी दलित और मुस्लिम गठजोड़ के उदाहरण सामने आते रहे हैं। 1947 में विभाजन के समय जोगेंद्रनाथ मंडल ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया और पाकिस्तान की मांग का हिस्सा बने। उन्होंने पाकिस्तान में कानून मंत्री का पद भी संभाला। लेकिन जल्द ही उन्हें इस्लामी कट्टरपंथ की सच्चाई का अहसास हुआ। पाकिस्तान में उनके दलित भाइयों को इस्लामिक कट्टरपंथियों ने निशाना बनाना शुरू कर दिया। नतीजतन, जोगेंद्रनाथ मंडल को भारत वापस अपनी जान बचाकर और भागकर आना पड़ा, लेकिन उनके साथ गए हजारों दलित आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में दुर्दशा झेल रहे हैं। 

यह पहली बार नहीं है कि इतिहास में किसी कहानी को गढ़ा गया हो। मशहूर गीतकार और लेखक जावेद अख्तर ने भी यह दावा किया था कि अकबर की "जोधा बाई" नाम की कोई रानी नहीं थी। यह नाम बाद में जोड़ा गया, ताकि मुगलों और राजपूतों के बीच एक कृत्रिम रिश्ते की कहानी बनाई जा सके और मुगलों से लोहा लेने वाले राजपूतों को नीचे दिखाया जा सके। वरना बाप्पा रावल ने दर्जनों मुस्लिम युवतियों को अपनी पत्नी बनाया था, जब उन्होंने तुर्कों और अरबों को युद्ध में हराया था, लेकिन उनका इतिहास भारत में पढ़ाया ही नहीं जात।।  क्योंकि एक समुदाय को श्रेष्ठ दिखाना ही उद्देश्य था। इसी के जोधा बाई, जैसी कई फर्जी कहानियां गढ़ी गई, जिसका असर भारत के जनमानस पर पड़ सके।  

फातिमा शेख का मामला भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। एक काल्पनिक नाम के जरिए यह दिखाने की कोशिश की गई कि मुस्लिम समुदाय ने भी महिलाओं की शिक्षा में बड़ा योगदान दिया। लेकिन सच्चाई यह है कि इस्लामिक देशों में आज भी महिलाओं की शिक्षा पर कई प्रकार की पाबंदियां हैं। आज भी "भीम-मीम भाई-भाई" का नारा लगाया जाता है, लेकिन इसके पीछे का सच क्या है? दिलीप मंडल जैसे नेताओं के खुलासे यह बताते हैं कि ऐसे नारे और कहानियां एक खास उद्देश्य के लिए बनाई जाती हैं। इनका मकसद इतिहास को तोड़-मरोड़कर एक ऐसा नैरेटिव बनाना है, जिससे समाज के अलग-अलग वर्गों को जोड़कर राजनीतिक फायदा उठाया जा सके।  

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