1931 में 4147 जातियां थीं, आज 46 लाख से अधिक! किसने बना दी नई जातियां

1931 में 4147 जातियां थीं, आज 46 लाख से अधिक! किसने बना दी नई जातियां
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नई दिल्ली: भारत में जातिगत जनगणना को लेकर एक गंभीर बहस चल रही है। केंद्र सरकार ने अब तक इसे लेकर कोई स्पष्ट निर्णय नहीं लिया है, हालांकि खबरें हैं कि यह जनगणना सितंबर में शुरू हो सकती है। मौजूदा नीतियां और सरकारी योजनाएं 2011 की जनगणना के आधार पर ही बन रही हैं, जो अब पुरानी हो चुकी है।

वर्ण व्यवस्था की जड़ें तो भारत में प्राचीन काल से हैं, जहां श्रीमद्भगवद गीता में भगवान कृष्ण ने चार वर्णों का उल्लेख किया था—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र—जिन्हें उनके कर्म और गुणों के आधार पर विभाजित किया गया था। जैसे ब्राह्मण यानी पुजारी, शिक्षक। क्षत्रिय यानी रक्षक, पुलिस, प्रशासक। वैश्य यानी उत्पादक, किसान, व्यपारी आदि। शूद्र यानी सेवक, जैसे कारीगर, मजदूर। परंतु समय के साथ कर्म पर आधारित जाति के आधार पर बदल गई। साथ ही और जटिल हो गई, जिसमें अनगिनत उपजातियां और समूह उभर आए।

2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जातियां (SC) और अनुसूचित जनजातियां (ST) भारत की कुल आबादी का क्रमशः 16.6% और 8.6% हिस्सा थीं, जो कि लगभग 20 करोड़ और 10 करोड़ लोग हैं। जातियों की संपूर्ण संख्या का आकलन करना कठिन है, क्योंकि समय के साथ इनकी पहचान और वर्गीकरण बदलता रहता है। विभिन्न राज्यों में जातियों और उपजातियों की संख्या भी अलग-अलग है, जैसे कि उत्तर प्रदेश, बिहार, और महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में जातीय समूह मौजूद हैं।

केंद्र सरकार ने बताया कि 1931 में पहली जातिगत जनगणना के अनुसार, भारत में कुल 4,147 जातियां थीं। लेकिन 2011 की जनगणना में यह संख्या आश्चर्यजनक रूप से 46 लाख से भी अधिक हो गई। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में 2011 की जाति जनगणना में कुल 4,28,677 जातियां पाई गईं, जबकि राज्य में अधिसूचित जातियों की आधिकारिक संख्या मात्र 494 थी। यह सवाल उठता है कि इतने कम समय में जातियों की संख्या में इतना बड़ा उछाल कैसे आ गया? इन नई जातियों का निर्माण किसने किया और क्यों? क्या आज के आधुनिक भारत में जातिगत पहचान की यह व्यवस्था प्रासंगिक है?

जब भारत में संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की बात करता है, तो क्या हमें जातियों पर आधारित जनगणना की आवश्यकता है? या फिर यह पुरानी व्यवस्था समाज को और विभाजित करने का काम कर रही है? ये प्रश्न विचारणीय हैं, क्योंकि जातियों की इतनी विस्तृत संख्या न केवल सामाजिक संरचना को जटिल बनाती है, बल्कि विभाजन और भेदभाव को भी बढ़ावा दे सकती है।

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