अगर ज़रूरी हैं हम, तो दूर क्यों हो तुम

अगर ज़रूरी हैं हम, तो दूर क्यों हो तुम
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हमारे पड़ोसियों के घर पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई,बधाई देने वालो का ताँता लगा हुआ था, तो में भी शामिल हो गया इस लाइन में, पर उस ख़ुशी के माहौल में एक चेहरा थोड़ा उदास नज़र आ रहा था और वो चेहरा था, उस परिवार की सबसे वयोवृद्ध माताजी का, जो इतने मेहमानों के बीच भी, दरवाज़े पर नज़र लगाये हुए थी, मानो किसी ख़ास का इंतज़ार कर रही हो |

 

खैर होगा किसी अपने का इंतज़ार, ये सोच कर में फिर जश्न में खो गया फिर कुछ देर बाद देखा उन माताजी की आँखों में अचानक ख़ुशी की लहर नज़र आने लगी और वो आ गये- वो आ गये आशीर्वाद देने, ज़ोर से ये बोलते हुए दरवाज़े पर गई | में भी उत्सुकता से दरवाज़े पर देखने लगा की आखिर वो कौन है जिसने उदास अम्मा को फिर उर्जावान बना दिया, और वो मेहमान भारी भरकम मेकअप कर, तालियाँ बजाते, बधाई गीत गाते घर के अन्दर इस शान-ओ -शौकत से आये जैसे उनके बिना अबतक सब अधूरा था, वो मेहमान, जिसे समाज किन्नर और संविधान तीसरे वर्ग के नाम से संबोधित करता है |

 

अब वो अम्मा अपने कांपते हाथो से बहु और पोते को पकड़कर कर साथ लाई और उन विशेष अतिथियों से बोली, मेरे पोते को दिल से आशीर्वाद देना ताकि ये खूब सफल हो | और अम्मा का ग्रीन सिग्नल पाते ही उनके आशीर्वाद का रिकॉर्ड बजाना आरम्भ हो गया उस 25 दिन के शिशु की पढाई, नौकरी, घर, शादी, बच्चे, बुढ़ापा मतलब ये, की उस बच्चे को जीवन की हर स्टेप पर जिन-जिन दुआओँ की जरूरत थी वो सब आज ही मिल गई और इसके बाद उन दुआ देने वालो ने वित्त मंत्रालय की मौद्रिक नीति  को अपनाते हुए अपनी मेहनत का मूल्यांकन किया और 11000 से शुरू हुई बोली 5551, कपड़े और मिठाई पर खत्म हुई | बाकी मेहमान भी उनसे, अपने सर पर हाथ रखवाते और नेग देने लगे (ध्यान दे-भुगतान का परिष्कृत शब्द है नेग ) में भी अपने घर आ गया |

अगले दिन जब मैं अपने चैनल गया तो एक ख़बर पर नज़र पड़ी |  राजस्थान हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, पर वो फैसला क्या और क्यों आया ? पहले हम ये जान ले, तो घटना  कुछ इस प्रकार है कि राजस्थान प्रदेश में साल 2013 में 12 हजार पदों के लिए पुलिस कांस्टेबल भर्ती परीक्षा हुई थी जिसमें सवा लाख अभ्यर्थी शामिल हुए थे. इनमें से 11 हजार 400 अभ्यर्थियों का कांस्टेबल पद पर चयन हुआ था उनमे 24 वर्षीय गंगा कुमारी का भी चयन हुआ | जब चयनित अभ्यर्थियों का मेडिकल कराया गया तो गंगा के किन्नर होने की बात सामने आई. तो इस असमंजस की स्थिति में वरिष्ठ अधिकारियों ने उनका चयन खारिज़ कर दिया | पर उस बहादुर इंसान ने हिम्मत नही हारी और कोर्ट में अपील की, और एक लम्बे संघर्ष के बाद योग्यता की, लिंग विवशता पर जीत हुई और कोर्ट ने पुलिस को उन्हें जल्द नियुक्त करने का आदेश दिया | अब मेरी आँखों के सामने दो ही दृश्य घूम रहे थे कि एक तरफ खुशियों के लिए हम, जिनका स्वागत-सत्कार करते है तो दूसरी तरफ समाज की मुख्यधारा में क्यों उन्ही दुआ देने वालो का तिरस्कार करते है |

आज भी सभ्य समाज की नज़र में वो महज एक ऐसे लिंग विवश समाज का प्रतिनिधित्व है जो नाच-गाकर, दुआये देकर अपना जीवन यापन करता हैं मैंने लिंग विवश शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ क्योकि ये मानवीय नही अपितु प्राकृतिक देन हैं इसके बावजूद ज्ञानी समाज, इन्हें अपनाता नही हैं, जिस औलाद की ख्वाहिश में लोग कितनी पूजा-पाठ-मन्नत करते है यदि वो बच्चा संपूर्ण नही है तो उसे अपने से ऐसे अलग कर देते है जैसे शरीर के किसी सड़े अंग को काट कर अलग कर दिया जाता है | बेसहारा के लिए आसरा, अनाथ आश्रम, अस्पताल,  खोल कर खुद की पीठ थपथपाने वालो ने कभी, इस समाज के लिए सोचा |

इनकी स्थिति कितनी भयानक है ये सच उजागर किया इंदौर में आशा होम्योफर्मेसी की चिकित्सक डॉ. यामिनी जैन ने, उन्होंने इस विशेष समाज की व्यथा सुनाते हुए बताया कि 1994 में मताधिकार का अधिकार मिलने और अप्रैल 2014 में भारत की शीर्ष न्यायिक संस्था– सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान दी थी। नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी (एनएएलएसए) की अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था। इस फैसले के बदौलत ही, हर किन्नर को जन्म प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस में तीसरे लिंग के तौर पर पहचान हासिल करने का अधिकार मिला। पर इन सब के बावजूद उनके पास ना बुनियादी सुविधाए हैं, ना शिक्षा, ना ही स्वास्थ्य परामर्श |

 

हालात इतने बदतर है कि जब ये लोग बीमार होने पर चिकित्सालय जाते है तो बाकी मरीज़ इन्हें देखकर परहेज करने लगते है, दूर हटने लगते है, जैसे ये इंसान नही, कोई रोग है | डॉ यामिनी  बताती है कि जानकारी का आभाव, एक अलग निवास व्यवस्था, और भटकाव भरे जीवन के कारण इन्हें कई संक्रामक स्वास्थ्य समस्यों से जूझना पड़ता है, पर सामान्य लोगो की असमान्य नज़रिए के कारण, ये हर जगह जाने में झिझकते है और अभी तक इनके लिए सरकार या समाज द्वारा कोई विशेष पहल नही की गई |  इसीलिए हमने इस समाज को, इनके अधिकारों से अवगत कराने और सामाजिक भ्रांतियों को दूर करने के लिए कोशिश की  है पर जब तक व्यापक स्तर पर सरकारें, संगठन, समाज इनके प्रति अपनी सोच नही बदलेंगे तब तक इनके हालत नही बदलेंगे |  इस दोगली मानवीय नीति को क्या कहा जाये कि जिसके आशीर्वाद के बिना शादी, ब्याह और कोई भी मांगलिक कार्य  सम्पन्न नही होता, उसके लिए समाज में कोई स्थान ही नही है, वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने इनके जीवनस्तर को ऊँचा उठाने के लिए और इन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए 19 जुलाई 2016 को ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल 2016 को मंजूरी दे दी। भारत सरकार की कोशिश इस बिल के जरिए एक व्यवस्था लागू करने की है, जिससे किन्नरों को भी सामाजिक जीवन, शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में आजादी से जीने के अधिकार मिल सके।  पर क्या कानून, समाज में सदियों से चली आ रही मानसिकता को बदल सकता है  इस पर भी मोदीजी को कुछ कानून बनाना चाहिए | उनसे दूर रहनेवाले लोग क्यों भूल जाते है कि जिन भगवान श्री राम के नाम पर मर मिट जाने को तैयार है उन्ही जगत पिता ने इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर इन्हें शुभ आशीर्वाद का वरदान दिया था | जिस अर्जुन ने महाभारत पापियों का संहार किया अज्ञातवास में इसी समाज का रूप धारण कर वृहनल्ला बन गये | हम तो अर्धनारीश्वर की पूजा करते है फिर क्यों इस तीसरे वर्ग को समाज से प्रथक मानते है |

एक इंसान जो न पुरुष है न स्त्री, क्या, उसकी मनोदशा, उसकी पीड़ा को कोई समझ सकता है ? केवल एक शबनम मौसी के विधायक बनने या गंगा कुमारी के पुलिस में आ जाने, गोरखपुर में ट्रेफिक रुल समझाने से या सिहस्थ में किन्नर अखाडा आने से देश में मौजूद लगभग 50 लाख किन्नरों की हालत और दशा नही बदलेगी |

जब तक हम पूर्ण लोगो की सोच नही बदलेगी, तब तक ये अपूर्ण समाज, यूँ  ही सडकों, ट्रेनों, बसों और मांगलिक आयोजनों में दुआ देकर रोटी खाने को मजबूर रहेगा | इसलिए कुछ सोचे हम और आप भी और आगे से जब कभी ये हमे नज़र आये, तो इस तीसरे वर्ग को तीसरी नज़र से ना देखे |

अपनी बात ख़त्म करने से पहले एक सवाल आपके चिंतन के लिए छोड़े जा रहा हूँ कि हमे, हमारे बच्चो को दुआ, आशीर्वाद देने वाले इस समाज के उत्थान के लिए क्या हमारे समाज की कोई जवाबदारी नही है ? और अगर है तो क्या किया जा सकता है ?ज़रूर बताये |

 

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