बर्न: स्विट्ज़रलैंड ने नए साल के पहले दिन बुर्का बैन कानून लागू कर दिया है, जिसके तहत सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढकने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस कानून का उल्लंघन करने वालों से 1,000 स्विस फ्रैंक (लगभग 94,651 रुपये) का जुर्माना वसूला जाएगा। यह कानून मुख्यतः मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले बुर्का और नकाब को टारगेट करता है, जिसके कारण इसे लेकर देश और दुनिया में तीखी बहस छिड़ गई है।
रिपोर्ट के अनुसार, स्विट्ज़रलैंड का ये कानून सार्वजनिक स्थानों और आम जनता के लिए सुलभ निजी इमारतों में चेहरा ढकने पर रोक लगाता है। हालांकि, इसमें स्वास्थ्य, सुरक्षा, मौसम या सांस्कृतिक कारणों से चेहरा ढकने की मनाही नहीं है। पूजा स्थलों और धार्मिक आयोजनों पर भी यह प्रतिबंध लागू नहीं होगा, वहां महिलाएं अपना सर और चेहरा ढंक सकती हैं। इसके साथ ही मनोरंजन और विज्ञापन के लिए भी चेहरा ढकने की अनुमति दी गई है।
उल्लेखनीय है कि, बुर्का बैन का आधार 2021 में हुआ जनमत संग्रह है, जिसमें 51.2% नागरिकों ने चेहरा ढकने के खिलाफ वोट डाला था। दक्षिणपंथी स्विस पीपुल्स पार्टी (SVP) ने इस प्रस्ताव को "चरमपंथ रोको" के नारे के साथ प्रस्तुत किया था, क्योंकि चेहरा ढंकने को चरमपंथ की निशानी और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना जाता है। हालांकि, सरकार ने इस कानून का विरोध किया था, यह कहते हुए कि राज्य को महिलाओं को यह निर्देश देने का हक नहीं है कि वे क्या पहनें। लेकिन, जनमत संग्रह के आगे सरकार कुछ न कर सकी और जनता की मांग के आगे झुकते हुए उसे ये कानून लागू करना पड़ा। हालाँकि, स्विट्ज़रलैंड में मुस्लिम आबादी बेहद कम है, लगभग 5 फीसद, इसलिए स्थानीय स्तर पर कोई विरोध नहीं हुआ। अगर आबादी अधिक होती, तो हो सकता था कि मुस्लिम सड़क पर आ जाते और हिंसा-आगज़नी से विरोध होता।
लेकिन, कुछ कथित मानवाधिकार संगठन इस कानून के विरोध में सामने आए हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल समेत कई मानवाधिकार संगठनों ने इस कानून की निंदा की है। उनका कहना है कि यह महिला अधिकारों, अभिव्यक्ति की आजादी और धर्म के अधिकार का उल्लंघन करता है। उनका कहना है कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करेगा, जो अपनी धार्मिक आस्था के कारण बुर्का पहनती हैं।
हालाँकि, इन कथित मानवाधिकार संगठनों की त्वरित प्रतिक्रिया कुछ सवालों को भी जन्म देती है कि ये मानवाधिकार संगठन ऐसे मुद्दों पर ही क्यों सक्रिय होते हैं, जहां उनकी एक खास विचारधारा को बढ़ावा दिया जा सके? पाकिस्तान में हिंदू और सिख बच्चियों का अपहरण, बलात्कार और जबरन धर्मांतरण हो रहा है, बांग्लादेश में हिंदुओं और बौद्धों की हत्याएं हो रही हैं, और अफगानिस्तान में सिख समुदाय को अपनी धार्मिक आस्था बचाने के लिए देश छोड़ना पड़ा। इन घटनाओं पर ऐसे संगठनों का मुंह क्यों नहीं खुलता?
वहीं, कानून के पक्ष में शामिल लोगों का कहना है कि, स्विट्ज़रलैंड में बुर्का पहनने वाली महिलाओं की संख्या बेहद कम है। एक शोध के अनुसार, केवल 30 महिलाएं नियमित रूप से नकाब पहनती हैं। इसके बावजूद, इस कानून को लेकर भारी बहस हो रही है। 86 लाख की आबादी वाले इस देश में मुसलमान केवल 5% हैं, जिनमें अधिकतर तुर्की, बोस्निया और कोसोवो से आए प्रवासी हैं।
ऐसे में मानवाधिकार संगठनों पर यह आरोप सही प्रतीत होता है कि वे केवल उन्हीं मुद्दों पर सक्रिय होते हैं, जहां उनके प्रोपेगेंडा को बढ़ावा दिया जा सके। धर्म और मानवाधिकारों की आड़ में ये संगठन कहीं न कहीं भेदभावपूर्ण रवैया अपनाते हैं। स्विट्ज़रलैंड में कानून लागू होते ही इनका विरोध शुरू हो गया, लेकिन दुनिया के अन्य हिस्सों में जहां धार्मिक अल्पसंख्यक अत्याचार झेल रहे हैं, वहां ये चुप रहते हैं। यह सवाल हर जागरूक नागरिक के मन में उठना लाजिमी है कि मानवाधिकारों के नाम पर आखिर ये संगठनों का असली उद्देश्य क्या है?