नई दिल्ली: क्या विपक्ष का काम केवल और केवल सरकार का विरोध करना होता है ? भले ही वो काम देशहित में हो ? क्योंकि बीते कुछ सालों में ऐसा देखने को मिला है, 370 हटाकर कश्मीर के दलितों को वोटिंग और बराबरी का अधिकार दिलवाना हो, वक्फ बिल के जरिए पीड़ितों को कोर्ट जाने का हक़ प्रदान करना हो, भारत के विपक्ष ने शुरू से इसका विरोध ही किया है। वो भी तथ्यों के आधार पर नहीं, केवल असंवैधानिक होने का आरोप लगाकर। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में ये साबित नहीं हो सका कि ये फैसले असंवैधानिक थे। अब वापस विपक्ष भारत सरकार के एक और फैसले का विरोध कर रहा है, जिसमे सरकार ने लेटरल एंट्री की योजना बनाई है। हालाँकि, विरोध के बाद इसका विज्ञापन रद्द कर दिया गया है। लेकिन, आपको ये जानकार अधिक हैरानी होगी कि राहुल गांधी, दलित-पिछड़ों के खिलाफ बताकर जिस लेटरल एंट्री का विरोध कर रहे हैं, वो प्रस्ताव मनमोहन सिंह ने ही पेश किया था और कांग्रेस उसे लागू करना चाहती थी। हालाँकि, सुस्त गति से काम हुआ और कांग्रेस सरकार इसे लागू नहीं कर पाई। अब जब कांग्रेस का ही प्रस्ताव मोदी सरकार लागू करने जा रही है, तो राहुल गांधी इसे दलित विरोधी बता रहे हैं, तो क्या ये माना जाए कि कांग्रेस एक दलित विरोधी प्रस्ताव लेकर आई थी ?
दरअसल, हाल ही में संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) ने केंद्र सरकार के अनुरोध पर नौकरशाही में 'लेटरल एंट्री' के तहत भर्ती के लिए जारी किए गए विज्ञापन को तीन दिन पहले रद्द कर दिया। यह फैसला ऐसे समय में आया जब कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने लेटरल एंट्री की प्रक्रिया का विरोध किया। हालांकि, इस पूरे विवाद में एक महत्वपूर्ण तथ्य नजरअंदाज हो गया, जो यह है कि लेटरल एंट्री का प्रस्ताव सबसे पहले मनमोहन सिंह सरकार के दौरान ही लाया गया था। वास्तव में, छठे केंद्रीय वेतन आयोग (CPC) की सिफारिश पर काम करते हुए, 2011 में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री कार्यालय ने संयुक्त सचिव स्तर पर 10% पदों को लेटरल एंट्री के माध्यम से भरने का प्रस्ताव दिया था। इसका मकसद यह था कि इस प्रक्रिया से कम समय में आवश्यक नियुक्तियाँ की जा सकें। उस समय कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) के एक नोट में उल्लेख किया गया था कि लेटरल एंट्री के उम्मीदवारों का चयन यूपीएससी द्वारा उनके बायोडाटा और साक्षात्कार या सीमित प्रतिस्पर्धी परीक्षा के आधार पर किया जाएगा।
छठे वेतन आयोग ने कुछ तकनीकी या विशिष्ट ज्ञान वाले पदों की पहचान करने की सिफारिश की थी, जिन्हें किसी भी सरकारी सेवा में नहीं भरा जा सकता था। इस अनुशंसा के अनुसार, उपयुक्त उम्मीदवारों से अनुबंध के आधार पर इन पदों को भरा जाना चाहिए। करीब दो साल बाद, 2013 में, DoPT ने वेतन आयोग की सिफारिश की समीक्षा की थी और UPSC ने अपनी सहमति जताई थी कि वे चयन प्रक्रिया को अपने अधिदेश के अनुसार पूरा करेंगे। हालांकि, विभिन्न मंत्रालयों और विभागों ने इस प्रस्ताव पर ठंडी प्रतिक्रिया दी, जिसके कारण यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी। फिर, 2017 में इस मुद्दे पर एक बार फिर चर्चा हुई। प्रधानमंत्री कार्यालय में एक बैठक के दौरान लेटरल एंट्री के बारे में विचार किया गया, लेकिन इस बार इसे यूपीएससी के दायरे से बाहर रखने का निर्णय लिया गया। अंततः 2018 में यह योजना फिर से यूपीएससी को ही सौंप दी गई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि UPSC एक बार में एक उम्मीदवार की सिफारिश करेगा और हर पद के लिए दो अन्य नामों को आरक्षित सूची में रखेगा। यह प्रक्रिया एक बार की नियुक्ति के रूप में मानी गई, न कि हर साल जारी रहने वाली प्रक्रिया के रूप में।
लेटरल एंट्री का कॉन्सेप्ट सबसे पहले 2005 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान आया था। उस समय गठित दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग, जिसकी अध्यक्षता कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली कर रहे थे, उन्होंने सुझाव दिया था कि ऐसे उच्च सरकारी पद जिनके लिए विशेष ज्ञान और कौशल की आवश्यकता होती है, उन पर लेटरल एंट्री शुरू की जाए। ताकि सरकार में प्रतिभावान लोग हों और इसका लाभ देश को मिले। लेकिन आज कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष उसी का विरोध कर रहा है, जिसको देखकर तो यही लगता है कि, भारत में आज राजनीति केवल विरोध की राजनीति चल रही है।
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