कई साल गुजर गए, लेकिन जम्मू-कश्मीर का मुद्दा आज भी अनसुलझा है। 26 अक्टूबर 1947 में जिस विलय संधि के आधार पर जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बना, वह महज दो पन्नों का है और उसने विवाद का निराकरण नहीं दिया बल्कि मामले को और उलझा दिया। उस दौर में साढ़े पांच सौ से ज्यादा रियासतों के शासकों को फैसला लेना था कि वे भारत में रहें या पाकिस्तान के साथ जुड़ें। दिल्ली में गृह मंत्रालय ने एक फॉर्म तैयार किया था। उसमें भी रिक्त जगह छोड़ी गई थी, जिसमें रियासतों और शासकों के नाम व तिथि लिखी जानी थी।
'अ मिशन इन कश्मीर' पुस्तक के लेखक एंड्रयू ह्वाइटहेड ने लिखा है कि कश्मीर के आखिरी महाराजा हरि सिंह स्वतंत्र रहना चाहते थे, किन्तु वह विकल्प तो उनके पास था ही नहीं। वहां मुस्लिम आबादी अधिक थी, किन्तु राजा हिंदू थे। हरि सिंह ने फैसला लेने में बहुत देर कर दी थी। भारत-पाकिस्तान आजाद हो चुके थे। जब अक्टूबर 1947 में इस बात की चर्चा शुरू हुई कि जम्मू-कश्मीर भारत में विलय कर सकता है तो कबायली लड़ाकों ने आक्रमण कर दिया। पाकिस्तान की नई सरकार ने उन्हें हथियार मुहैया कराए थे, वो भी भारत द्वारा दिए गए पैसों से। कबायलियों की फौज, गैर-मुस्लिमों की हत्या और लूटपाट और महिलाओं की आबरू को रौंदते हुए आगे बढ़ी।
उस समय हरिसिंह 25 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर से जम्मू आ गए। आधिकारिक रूप से कहा जाता है कि गृह सचिव वीपी मेनन 26 अक्टूबर को जम्मू पहुंचे और उन्होंने ही विलय के कागजात पर महाराजा से हस्ताक्षर करवाए। भारतीय सेना ने पाकिस्तानियों को श्रीनगर में घुसने से तो रोक दिया, किन्तु पूरी रियासत से बाहर नहीं निकाल पाए। 1948 में फिर जंग छिड़ी और पाकिस्तान ने खुलेआम हिस्सा लिया। स्वतंत्र होने के छ महीनों के भीतर ही भारत और पाकिस्तान कश्मीर के लिए एक-दूसरे से लड़ रहे थे। हरि सिंह ने विलय संधि पर हस्ताक्षर कर विवाद के निपटारे की उम्मीद जताई थी, लेकिन उस विवाद का समाधान अब तक नहीं निकला है। आज भी दोनों देशों के बीच कश्मीर का मुद्दा सबसे ज्वलंत बना हुआ है और आए दिन वहां कत्लेआम होता रहता है।
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