बशीर बद्र (जन्म सैयद मुहम्मद बशीर ; 15 फरवरी 1935) एक शायर हैं। वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू पढ़ाते थे । वह मुख्य रूप से उर्दू भाषा में विशेषकर ग़ज़लें लिखते थे । उन्होंने 1972 में शिमला समझौते के दौरान दुश्मनी जम कर करो शीर्षक से एक शेर भी लिखा था जो भारत के विभाजन के इर्द-गिर्द घूमता है । अनिश्चित कविताओं सहित बद्र का अधिकांश अप्रकाशित साहित्यिक कार्य 1987 के मेरठ सांप्रदायिक दंगों के दौरान खो गया था, और बाद में वह भोपाल , मध्य प्रदेश चले गए ।
उनके दोहे भारतीय राजनेताओं पर प्रभाव डालते प्रतीत होते हैं और कभी-कभी भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और 2014 के कांग्रेस के राहुल गांधी जैसे नेताओं द्वारा भारत की संसद में उद्धृत किए जाते हैं । 1972 में, उनके शेर को जुल्फिकार अली भुट्टो ने उद्धृत किया था ।
पुरस्कार
बद्र को साहित्य और संगीत नाटक अकादमी में योगदान के लिए 1999 में पद्म श्री पुरस्कार मिला है । उन्हें 1999 में उनके कविता संग्रह " आस " के लिए उर्दू में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है।
बशीर बद्र के खास शेर कुछ यूं है
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जाएगा
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
कभी कभी तो छलक पड़ती हैं यूँही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं ह
इसी शहर में कई साल से मिरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं
उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं मुझे उन का कोई पता नहीं
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होते
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