देहरादून: उत्तराखंड की भाजपा सरकार जल्द ही राज्य में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने की तैयारी कर रही है। यह फैसला राज्य और देशभर में चर्चा का विषय बन चुका है। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य है कि हर नागरिक, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो, एक ही कानून के तहत आए। लेकिन राज्य के मुस्लिम संगठनों ने इसका विरोध शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि यह कानून अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन करता है और उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करता है।
मुस्लिम सेवा संगठन, तंजीम-ए-रहनुमा-ए-मिल्लत और जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठनों ने इस कानून को अदालत में चुनौती देने की बात कही है। मुस्लिम सेवा संगठन के अध्यक्ष नईम कुरैशी का कहना है कि यूसीसी संविधान के अनुच्छेद 246 का उल्लंघन करता है, जो केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्रों को परिभाषित करता है। उनका यह भी आरोप है कि आदिवासियों को इस कानून से बाहर रखा गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि सरकार निष्पक्ष कानून बनाने के बजाय अल्पसंख्यकों को लक्षित करने में रुचि रखती है।
समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद कई ऐसी प्रथाओं पर रोक लगाई जाएगी, जो मुस्लिम समुदाय में प्रचलित हैं। इनमें बहुविवाह, निकाह-हलाला और इद्दत जैसी प्रथाएं शामिल हैं। वर्तमान कानूनों के अनुसार, भारत में एक व्यक्ति को एक पत्नी रहते हुए दूसरी शादी की इजाजत नहीं है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत पुरुष बहुविवाह कर सकते हैं। यूसीसी इस प्रथा को गैरकानूनी बना देगा। इसके अलावा, निकाह-हलाला को भी अवैध घोषित किया जाएगा। यह एक ऐसी प्रथा है जिसमें तलाकशुदा महिला को अपने पूर्व पति से पुनर्विवाह के लिए पहले किसी अन्य पुरुष से शादी करनी पड़ती है और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाना होता है।
शादी की न्यूनतम उम्र को लेकर भी यूसीसी का प्रभाव पड़ेगा। मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत लड़कियों की शादी की उम्र 13 साल मानी जाती है, जबकि भारतीय कानून इसे अवैध ठहराता है। यूसीसी के तहत सभी धर्मों के लिए यह उम्र स्पष्ट रूप से 18 साल तय होगी। यह कदम न केवल महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करेगा, बल्कि बच्चों की शादी जैसी प्रथाओं को भी खत्म करने में मददगार साबित होगा।मुस्लिम संगठन संविधान का हवाला देते हुए यूसीसी का विरोध कर रहे हैं, लेकिन यह विरोधाभास है कि वे केवल सिविल मामलों में शरिया कानून की मांग करते हैं। आपराधिक मामलों में वे संविधान के तहत भारतीय कानूनों का पालन करते हैं। उदाहरण के लिए, शरिया कानून के तहत चोरी करने वाले के हाथ काटने और बलात्कारियों को पत्थरों से मारने की सजा दी जाती है। लेकिन मुस्लिम समुदाय इस्लामिक आपराधिक कानून को लागू करने की मांग नहीं करता। यह दोहरे मापदंड भारतीय समाज में एक जटिल बहस को जन्म देते हैं।
सरकार का कहना है कि यूसीसी का उद्देश्य किसी भी धर्म विशेष के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की दिशा में एक कदम है। लेकिन मुस्लिम संगठन इसे एक धर्म पर दूसरे धर्म की संस्कृति थोपने का प्रयास मान रहे हैं। तंजीम-ए-रहनुमा-ए-मिल्लत के अध्यक्ष लताफत हुसैन का आरोप है कि यूसीसी पर मुस्लिम समुदाय की आपत्तियों और सिफारिशों को अनदेखा किया गया है। उनका कहना है कि समिति के सभी सदस्य हिंदू हैं, जिससे उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठता है।
इस मामले में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या भारत जैसे विविधता से भरे देश में एक समान कानून लागू करना संभव होगा? यदि संविधान का पालन करना है, तो इसे पूरी तरह से लागू करना चाहिए। देश में सिविल और आपराधिक कानूनों में यह भेदभाव केवल भ्रम और असंतोष को जन्म देता है। मुस्लिम समुदाय को यह तय करना होगा कि वे संविधान के तहत चलना चाहते हैं या शरिया कानून के।
समान नागरिक संहिता का विरोध करना मुस्लिम संगठनों के लिए एक चुनौती है। यह कानून सभी नागरिकों को समान अधिकार और दायित्वों के दायरे में लाने का प्रयास है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि यह मुद्दा न्यायपालिका और समाज में किस दिशा में आगे बढ़ता है। लेकिन यह स्पष्ट है कि देश को यह तय करना होगा कि वह समानता और संविधान की राह पर चलेगा या धार्मिक कानूनों के बंटवारे के साथ रहेगा।