रहीम जी के दोहे की पंक्तियां तो आपने सुनी ही होंगी रहिमन पानी राखिए..! कुछ इस तरह से रहिम जी की पंक्तियों में एक गूढ़ अर्थ है लेकिन यहां पर यदि हम जीवन के लिए उपयोगी पानी अर्थात् जल की बात करें तो ये पंक्तियां सार्थक लगती हैं। जी हां, हमारी इस धरती के करीब 70 प्रतिशत भाग पर जल है। मगर इसके बाद भी जीवन है कि पानी के लिए तरस रहा है। आप अक्सर अपने घर के आसपास नज़र दौड़ाते होंगे तो कुछ लोग आपको सुबह - शाम जलस्त्रोतों से पानी भरते हुए ही नज़र आ जाते होंगे।
जल के लिए कुछ लोग अपने सिर पर और हाथ में गगरी उठाकर या घड़ा रखकर मीलों चलने का जतन करते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो मटमैला पानी पीने के लिए मजबूर हैं तो कुछ ऐसे हैं जो अपने घर के आसपास जलस्त्रोत होने के बाद भी साफ और पीने योग्य पानी के लिए तरस जाते हैं। इन सभी परेशानियों से मिनरल वाॅटर का निर्माण करने वाली कंपनियों का कारोबार जरूर बढ़ सकता है लेकिन यह एक गंभीर समस्या है। वह धरती जिसके एक बड़े भाग पर जल की मौजूदगी है वहां रहने वाले पानी की जद्दोजहद करते हों तो यह बेहद आश्चर्य की बात होगी।
भारत में ही कई ऐसे राज्य हैं जहां पर बारिश के मौसम में नदियों में उफान आ गया था। जलस्त्रोत लबालब भर गए थे लेकिन गर्मियों के मौसम की शुरूआत होने के ही साथ अब इन क्षेत्रों में सूखे के हालात हैं। लोगों तक टैंकर्स से पानी पहुंचाने के जतन करना पड़ रहे हैं। हालात ऐसे गंभीर हैं कि लोग बावड़ियों और कुओं से बमुश्किल पानी प्राप्त कर रहे हैं। दरअसल इसका एक कारण बारिश के पानी को भूजल के तौर पर न सहेज पाना है।
इस तरह की व्यवस्थाओं का अभाव है जिससे बारिश में एकत्रित हुआ जल जमीन में जा सके। जिसके फलस्वरूप वातावरण में उमस बढ़ती है तो लोगों को पर्याप्त मात्रा में भूजल नहीं मिल पाता है। कुछ गांवों में तो जल में विशेष तरह के रसायन मिले होते हैं। प्राकृतिक तौर पर इन रसायनों के संपर्क में आने के कारण यहां का जल पीने योग्य नहीं होता बल्कि ऐसा जल विशेष तरह की बीमारियां जरूर करता है। एक गांव अजीमाबाद पारदी तो ऐसा है जहां पर लोगों की लगभग पूरी आबादी एक विशेष बीमारी से ग्रस्त है और जहां के लोग रोजगार के लिए अन्यत्र चले जाते हैं।
विभिन्न क्षेत्रों की नदियां प्रदूषित हैं कई नदियों को लेकर धार्मिक मान्यता है कि इनके जल के आचमन मात्र से मानव को मोक्ष मिल जाता है लेकिन ऐसी नदियों का जल आचमन योग्य भी नहीं है। नदि और समुद्र का पूजन करने वाली हमारी जिस संस्कृति में हम रचे बसे हैं उसके उलट हमें अपनी नदियों से शुद्ध पानी प्राप्त करने के लिए जर्मनी और अन्य देशों की तकनीक का उपयोग करना पड़ रहा है।
जिस गंगा नदी का जल हम वर्षों तक अपने घरों में बोतलों में और पात्रों में भरकर रखा करते थे आज वही प्रदूषित है और उसकी शुद्धि के लिए नमामि गंगे और क्लीन गंगा जैसे प्रोजेक्ट चलाने पड़ रहे हैं। शिप्रा जैसी कई नदियों के जल को शुद्ध करने और इसे संरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के तहत करोड़ों रूपए बहाए गए लेकिन नतीजा सिफर ही रहा।
आखिर हम जिन नदियों का पूजन करते हैं उन्हें जीवंत मानते हैं। उन्हें चुनर ओढ़ाते हैं उनके जल को निर्मल क्यों नहीं रख पाते हैं। आखिर क्या कारण है कि जो बावड़ियां, कुंऐ और जलस्त्रोत हमारी धार्मिक परंपराओं से जुड़े हुए हैं वे आज सूख रहे हैं और अपना अस्तित्व खो रहे हैं। इन बातों पर विचार कर हमें कारगर उपाय अपनाने की जरूरत है।
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