“लोग कहते हैं कि सत्रह लाख साल पहले एक आदमी हुआ था. उसका नाम राम था. उसके बनाए पुल (रामसेतु) को हाथ ना लगायें. कौन था ये राम? किस इंजीनियरिंग कॉलेज से ग्रेजुएट हुआ था? कहां है इसका सबूत?”
ये शब्द थे एम् करूणानिधि के, जो उन्होंने सितम्बर 2007 में कहे थे. जिस एंटी-ब्राह्मणवादी राजनीति का प्रतीक करूणानिधि बीती आधी सदी से बने हुए थे, उसकी बुनियाद यही आक्रामक तेवर है, जो उन्हें अपने राजनैतिक गुरु सी एन अन्नादुराई और वैचारिक आदर्श ‘पेरियार’ से विरासत में मिले थे.
भगवान को न मानने वाले करूणानिधि को उनके समर्थकों ने भगवान बना दिया था. भगवान से बगावत करूणानिधि के बचपन से ही शुरू हो गई थी. इसका एक किस्सा है, करुणानिधि गांव के मंदिर में संगीत सीखने जाते थे. वादन तो जाने कितना सीख पाए, पता नहीं. लेकिन यहीं गुरु ने बालक को जातिगत भेदभाव का पहला पाठ पढ़ाया. तथाकथित निचली जाति के बालक करुणानिधि को मंदिर में कमर के ऊपर कोई कपड़ा पहनकर प्रवेश नहीं मिलता था. उन्हें धुनें भी कुछ ही सिखाई जाती थीं. बालक ने देखा, जातिगत भेद संगीत में भी पसरा हुआ था, संगीत से मन उचट गया.
तरुणावस्था में ही वे विचारक ई वी रामास्वामी ‘पेरियार’ के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उनके खड़े किये ‘आत्मसम्मान’ के आन्दोलन से जुड़ गए. यह आन्दोलन गैर-ब्राह्मणवादी भावों से ओतप्रोत था, द्राविड़ जन को ‘आर्यन’ ब्राह्मणवाद के खिलाफ उठ खड़े होने को आंदोलित कर रहा था. यहीं से करूणानिधि के लिए राजनीति का पहला दरवाजा खुला. 1937 में जब हिंदी को स्कूलों के लिए अनिवार्य भाषा बना दिया गया, तब पेरियार के विचारों से प्रभावित करूणानिधि सड़कों पर उतर आए. यहीं से उन्होंने उन्होंने कलम उठाई और लिखना शुरू कर दिया और नाटक, पर्चे, अखबार, भाषण उनके हथियार बन गए. इसी रास्ते पर चलते हुए वे दक्षिण की राजनीति के पितामह बने.
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