नई दिल्ली: आतंकी हमलों में अपना घर, परिवार जमीन, सबकुछ लुटा चुके कश्मीरी पंडितों को सर्वोच्च न्यायालय से एक बार फिर निराशा मिली है। देश के सबसे बड़े 'न्यायालय' ने 700 कश्मीरी पंडितों की हत्या की जांच कराने से एक बार फिर इनकार करते हुए एक और याचिका ठुकरा दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 2017 के फैसले पर पुनर्विचार करने से साफ इनकार कर दिया है, जिसमें 1989-90 के दौरान जम्मू और कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के सामूहिक नरसंहार की स्वतंत्र जांच कराए जाने की मांग को अदालत ने ठुकरा दिया था।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस याचिका को ठुकराए जाने की सोशल मीडिया पर काफी आलोचना हो रही है। फ़िल्मकार अशोक पंडित ने ट्वीट करते हुए लिखा है कि, 'किसी ने हमारा रेप नहीं किया। हमें किसी ने नहीं मारा। हमने नरसंहार और जातीय सफाया नहीं झेला। और इसलिए तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1989-90 के दौरान कश्मीरी पंडितों की लक्षित हत्याओं की एसआईटी जांच की मांग करते हुए कश्मीर में एनजीओ रूट्स द्वारा दायर उपचारात्मक याचिका को खारिज कर दिया। शर्म और दुख।' एक यूज़र ने अपने ट्वीट में लिखा कि, हमें उम्मीद नहीं थी, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका सभी कश्मीरी पंडितों के लिए नाकाम हो चुके हैं, आतंकवादियों के लिए रात में अदालतें खुल सकती हैं, लेकिन नरसंहार के पीड़ितों के लिए नहीं, शाबाश सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया।
No body raped us.
— Ashoke Pandit (@ashokepandit) December 8, 2022
Nobody killed us.
We didn’t suffer genocide
& ethnic cleansing . & hence #SupremeCourtOfIndia Court dismisses the curative petition filed by NGO Roots in Kashmir seeking an SIT probe into targeted killings of Kashmiri Pandits during 1989-90.
Shame & Sad .
भारत के प्रधान न्यायाधीश (CJI) धनंजय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर की बेंच ने कश्मीरी पंडितों के समर्थन में रूट्स द्वारा दाखिल की गई याचिका को ठुकराते हुए कहा कि, 'हमने क्यूरेटिव पिटीशन और इससे संबंधित दस्तावेज को देखा है। हमारी राय में अदालत द्वारा रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा मामले में बताए गए मापदंडों के आधार पर कोई केस नहीं बनता है। इसलिए क्यूरेटिव पिटीशन खारिज की जाती है।' बता दें कि, रूट्स इन कश्मीर' ने 2017 में एक जनहित याचिका के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। तक़रीबन 700 कश्मीरी पंडितों की मौत के मामले में सभी मामलों को पुनः खोलने की मांग की गई थी। साथ ही अदालत की निगरानी में केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) जैसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा जांच कराए जाने की मांग की थी। संगठन ने तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा दर्ज की गई प्राथमिकी पर मुकदमा न चलाने के कारणों की जांच के लिए एक जांच आयोग का गठन करने की मांग भी की थी।
जनहित याचिका पर 27 अप्रैल, 2017 को तत्कालीन CJI जेएस खेहर और जस्टिस धनंजय वाई चंद्रचूड़ की बेंच ने सुनवाई की और फैसला सुनाया था। आदेश में कहा गया था कि, 'हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस याचिका पर सुनवाई करने से इनकार करते हैं। मौजूदा याचिका में वर्ष 1989-90 का संदर्भ दिया गया है। तब से अब तक 27 साल से ज्यादा समय हो चुका है। इतने सालों में सबूत उपलब्ध होने की संभावना नहीं है।'
बाद में रूट्स इन कश्मीर ने इस आदेश को चुनौती देने वाली एक समीक्षा याचिका भी दाखिल की थी, जिसे भी अक्टूबर 2017 में खुली कोर्ट में सुनवाई के बगैर ही ठुकरा दिया गया था। याचिका में कहा गया था, 'फैसलों और आदेश की समीक्षा की जा सकती है। यह आदेश पूरी तरह से निराधार अनुमान पर आधारित है। इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि 1996 से कुछ प्राथमिकी में मुकदमे भी चल रहे हैं।' याचिका में कश्मीरी आतंकी यासीन मलिक के खिलाफ चल रहे केस का भी जिक्र किया गया था।
बता दें कि, यासीन मलिक ने भारतीय वायु सेना (IAF) के चार निहत्थे अधिकारियों की हत्या कर दी थी और इस बात को आतंकी ने TV पर कबूला भी था। याचिका में कहा गया था कि, 'यह कोर्ट इस बात पर गौर करने में पूरी तरह से नाकाम रही है कि 700 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की हत्या को लेकर दर्ज 200 से अधिक मामलों में FIR दर्ज की गई थी, मगर एक भी FIR चार्जशीट या दोषसिद्धि के चरण तक नहीं पहुंची है।' याचिका में यह भी कहा गया है कि इस याचिका को खारिज करने से मौजूदा जारी जांच पर भी असर पड़ेगा। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कश्मीरी पंडितों के जख्मों पर नमक छिड़कते हुए उनकी पीड़ा सुनने से ही साफ इंकार कर दिया।
सिख नरसंहार पर सुनवाई कर चुका है सुप्रीम कोर्ट :-
हालांकि, यहाँ ये भी ध्यान देने वाली बात है कि, इसी सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार से लगभग 6 साल पहले हुए सिखों के कत्लेआम (1984 सिख दंगा) मामले में सुनवाई भी की, जांच के आदेश भी दिए और आरोपियों को सजा भी सुनाई। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट पर यह गंभीर सवाल खड़ा हो रहा है कि, जब अदालत 1984 के कत्लेआम पर सुनवाई कर सकती है, तो 1990 के वीभत्स नरसंहार पर क्यों नहीं ?
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