अकेले वॉक पर क्यों चली गई..? शौहर ने पत्नी को दिया तीन तलाक़

अकेले वॉक पर क्यों चली गई..? शौहर ने पत्नी को दिया तीन तलाक़
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मुंबई: महाराष्ट्र के ठाणे जिले में 31 वर्षीय व्यक्ति पर अपनी पत्नी को 'तीन तलाक' देकर तलाक देने का मामला दर्ज किया गया है। यह घटना मुंब्रा इलाके की है, जहाँ आरोपी ने अपनी 25 वर्षीय पत्नी को मामूली बात पर तलाक दे दिया। महिला ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है, जिसमें बताया गया कि उसके पति ने उसके पिता को फोन कर 'तीन तलाक' देने की बात कही। इस तलाक का कारण पत्नी का अकेले वॉक पर जाना बताया गया।  

पुलिस ने आरोपी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 351(4) और मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के तहत प्राथमिकी दर्ज की है। 2019 में केंद्र सरकार ने कानून बनाते हुए 'तीन तलाक' को अपराध घोषित कर दिया था, जिसमें तीन साल तक की सजा का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2017 को तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया था और इसे 1400 साल पुरानी प्रथा को समाप्त करने का ऐतिहासिक फैसला बताया था।  

यह मामला सिर्फ एक कानूनी उल्लंघन नहीं, बल्कि संविधान और इस्लामी शरिया कानून के बीच टकराव का प्रतीक है। भारत का संविधान तलाक के लिए कानूनी प्रक्रिया की बात करता है, जिसमें रिश्ते को खत्म करने से पहले अदालत में सुलह का हर संभव प्रयास किया जाता है। न्यायपालिका के फैसले के बाद ही तलाक को वैध माना जाता है।  

वहीं, इस्लामी कानून के तहत, एक पति महज तीन बार 'तलाक' बोलकर या लिखकर निकाह खत्म कर सकता है। इसके अलावा, इस्लामी कानून में तलाक के अन्य तरीके भी मौजूद हैं, जो भारतीय कानून से पूरी तरह अलग हैं।  
इस घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि धर्मनिरपेक्ष देश भारत में संविधान को प्राथमिकता दी जाएगी या अलग-अलग मजहबों के कानूनों को?  

भारतीय संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता, और न्याय की बात करता है, जहाँ पति-पत्नी के रिश्ते को खत्म करने के लिए एक तय प्रक्रिया अपनाई जाती है। इसके विपरीत, इस्लामी कानून में तलाक के नियम सरल और एकतरफा हैं, जो महिलाओं के अधिकारों पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।  

तीन तलाक जैसी प्रथाएँ न केवल महिलाओं के अधिकारों का हनन करती हैं, बल्कि भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी हैं। ऐसी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए कड़े कानून के साथ ही सामाजिक जागरूकता की भी आवश्यकता है। यह घटना केवल एक व्यक्ति का मामला नहीं है, बल्कि एक बड़े मुद्दे की ओर संकेत करती है, जहाँ भारत को तय करना होगा कि मजहब और संविधान निर्मित्त कानून के बीच किसे प्राथमिकता दी जाए। क्या महिलाओं के अधिकारों और न्याय के लिए संविधान को सर्वोपरि माना जाएगा, या मजहबी प्रथाओं को जारी रखने की अनुमति दी जाएगी?  

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