नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवासी भारतीयों और प्रवासी कामगारों को डाक या परोक्ष मतदान की इजाजत देने के लिए केंद्र सरकार और निर्वाचन आयोग को निर्देश देने का अनुरोध करने वाली तक़रीबन एक दशक पुरानी याचिकाओं को अटॉर्नी जनरल के आश्वासन के बाद मंगलवार (1 नवंबर) को बंद कर दिया. प्रधान न्यायाधीश (CJI) उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने मामले की सुनवाई के शुरु में ही यह स्पष्ट कर दिया कि ऐसे मामलों पर अब और विचार नहीं किया जा सकता, जिनके चलते चुनाव आयोग ने एक समिति का गठन किया और बाद में संसद के एक सदन में इस संबंध में बिल पेश किया गया.
अदालत ने याचिकाएं बंद करने से पहले कहा कि, ‘क्षमा करें. हम इसे अभी बंद करेंगे. ये वे मामले हैं जो पिछले नौ-दस वर्षों से विचाराधीन हैं.’ कोर्ट ने कहा कि अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने आश्वासन दिया है कि यह सुनिश्चित करने के लिए हर कदम उठाया जाएगा कि बाहर रहने वाले व्यक्ति और प्रवासी कामगार चुनावी प्रक्रिया में शामिल हों और चुनाव की गोपनीयता को बनाए रखते हुए वोटिंग की सुविधा का विस्तार किया जाएगा. जिसके बाद शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में कहा है कि निर्वाचन आयोग की तरफ से गठित समिति की सुझाव को केंद्र सरकार ने मंजूर किया था और इसके बाद इसके संबंध में बिल 2018 में लोकसभा में पेश किया था, ताकि रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट, 1951 के सेक्शन 60 को संशोधित किया जा सके.
इस बिल का उद्देश्य प्रवासी भारतीयों के बदले उनकी तरफ से नियुक्त किसी अन्य शख्स को वोट देने की इजाजत देना था. विधेयक लोकसभा में पारित हो गया था. हालांकि राज्यसभा में इसे पेश नहीं किया गया था. ऐसे में यह विधेयक अपने आप ही खत्म हो गया था. बिल ख़त्म हो जाने के बाद इस दिशा में कोई भी कदम नहीं उठाया गया था. शीर्ष अदालत में याचिकाकर्ताओं ने मांग की थी कि सरकार से इस पर रिपोर्ट मांगी जाए, मगर इस पर शीर्ष अदालत की बेंच तैयार नहीं हुई. उसका कहना है कि यह पॉलिसी से जुड़ा मुद्दा है और इसमें सरकार या संबंधित अथॉरिटी को विभिन्न मानकों को देखते हुए फैसला लेना होगा. इसमें अदालत उनके हाथ नहीं बांध सकती है.
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