पर्यावरण का सब बड़ा दुश्मन आज इंसान ही है और उसने सदियों से इसके साथ खिलवाड़ करते हुए आज हालत बद से बदत्तर कर दिए है. जल, थल, नभ, वायु यहां तक की ब्रह्माण्ड तक को मानव ने अपनी महत्वकांशाओ से प्रदूषित कर दिया है. सागर में जल जीव विलुप्त हो रहे है, तो गगन में उड़ते परिंदे गायब से हो चले है, ग्लेशियर पिघल रहे है और जंगलो में आग लग रही है. मगर अब कुछ नहीं हो सकता. क्योकि इस और जितना धयान दिया जाना था, नहीं दिया जा रहा है, बेख़बरी का नाटक कर उसी रफ़्तार से प्रकृति को निचोड़ा और झंझोड़ा जा रहा है. परिणाम चाहे जो भी हो आज को खुशहाल करने की अंधी सोच ने कल को भुला रखा है. और सही मायने में आज भी कहा खुशहाल है. जीवन जीने की तमाम सुविधाएं और लक्जरी मेंटेन करने के बाद भी और विकास के हर रोज नए आयाम गढ़ने के बाद भी सुकून की तलाश में मानव भटका हुआ दिख रहा है. बीमारियों ने मानव जाति को जकड रखा है और प्रकृति के साथ हुई व्यापक निर्दयता अब विश्व की औसत उम्र के महज 60 साल से भी कम हो जाने के रूप में सामने आ रही है. एक दिन विश्व पर्यावरण दिवस मना लेने से जिम्मेदारियों का निर्वहन कर लिया जायेगा और गमलों में पानी देकर और कॉलोनियों के गार्डन में घास पर नंगे पाव चल कर खुद को फिट एंड फाइन बता लिया जायेगा. मगर क्या ये सच है. बहरहाल जो भी हो अब जीना इसी में है मगर आज भी कोशिशे की जा सकती है .
फ़िलहाल असलियत से कोसो दूर है - ''वादियों में आग लगाते लोग, छतों पर जंगल उगाते लोग, सदियों तक कुल्हाड़ियों के सौदागर रहे, अब गमलो में दरख्तों को सजाते लोग.''
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