पेरिस जलवायु समझौते में दुनिया के लगभग सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों को लेकर एक स्वर में बात करने की कवायद शुरू की है. लेकिन पिछले साल अमेरिका ने इस पोरजेक्ट में से अलग होने का एलान कर इसके असर को फीका कर दिया है. एक ताकतवर और बड़े देश का समझौते से अलग हो जाना इस पर प्रतिकूल प्रभाव डाल गया हैं. शर्तो के अनुसार समझौते में 55 देश चाहिए जो दुनिया भर में होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 55% हिस्से को कम करे. मगर अब ग्रीनहाउस उत्सर्जन करने के लिए जिम्मेदार सबसे बड़े देश अमेरिका इससे अलग हो गया है. इसी तरह चीन भी अलग होना चाहता है चाहता है जिसके बाद समझौता के सफल होने के आसार ज्यादा है
क्या है पेरिस जलवायु समझौता -
पृथ्वी के औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा की बढ़त न हो.
इस 2 डिग्री गोल को हासिल करने के लिए समझौते के तहत हर देश को अपने ‘पीक ईयर’ तक जल्दी से जल्दी पहुंचने की कोशिश करनी होगी. पीक ईयर से यहां मतलब है वह साल जब किसी देश का उत्सर्जन नेगेटिव जाने लगेगा.
2030 तक का समय कई देशो ने मांगा है.
अमेरिका ने शपथ ली थी कि 2025 तक वह 26 प्रतिशत तक उत्सर्जन कम कर देंगे.
ऐसा करने के लिए 195 देशों ने रजामंदी जताई है.
प्रकृति को सँभालने और वातावरण में असंतुलन को संतुलित करने के प्रयास में से बड़े देशो का यु अलग हो जाना पेरिस जलवायु समझौते के सफल होने पर सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह हो गया है
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