नई दिल्ली: कैंसर की बीमारी पिछले कुछ सालों से भारत सहित दुनियाभर में बढ़ रही है. इसकी रोकथाम के लिए चिकित्सकीय उपायों के साथ ही सामाजिक और आर्थिक विश्लेषण की भी आवश्यकता है. यदि आंकड़ों पर गौर किया जाए, तो बीते 25 वर्षों में हृदय रोगियों की तादाद में 50 फीसद का इजाफा हुआ है और आने वाले 20 वर्षों में प्रतिवर्ष कैंसर की चपेट में आने वालों की संख्या लगभग दोगुनी हो जाने वाली है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में प्रति वर्ष लगभग साढ़े 11 लाख लोग कैंसर की चपेट में आते थे. वर्ष 2040 तक इनकी तादाद 20 लाख तक पहुंच जाने की आशंका है. एक स्टडी के मुताबिक, 75 साल की आयु से पहले कैंसर से मौत का जोखिम पुरुषों में 7.34 % और महिलाओं में 6.28 % तक होता है. आंकड़े बताते हैं कि पुरुष केंद्रित कैंसर के मामले निरंतर बढ़ रहे हैं. वर्ष 2018 में कैंसर से होने वाली मौतों की कुल तादाद 7,84,821 थी, जिसमें पुरुषों की तादाद 4,13,519 तथा महिलाओं की तादाद 3,71,302 थी.
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर (प्रीवेंटिव ऑन्कोलॉजी) डॉक्टर अभिषेक शंकर का कहना हैं कि समाज के एक बहुत बड़े तबके में पुरुषों की छवि ऐसी मजबूत बना दी गई है कि उनकी समस्याओं के प्रति समाज सहज नहीं रहता. उनको अपना दर्द बयान करने पर कमजोर समझा जाता है. यही वजह है कि पुरुष केंद्रित कैंसर विशेष चर्चा का विषय नहीं बन पाते.
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