योग दिवस के संदर्भ में, हमने ‘योग’ के बारे में कुछ जरूरी जानकारियाँ देने का प्रयास किया है । आमतौर पर लोग योग को एक विशेष प्रकार की व्यायाम शैली ही मानते हैं । इसी भ्रम को दूर करने और योग की विस्तृत शिक्षाओं को संक्षेप में यहाँ बताया जा रहा है । यह स्पष्ट होना जरूरी है कि योग एक जीवन-शैली और एक जीवन-दर्शन भी है । इस लेख श्रंखला के पहले भाग में हमने बताया था कि योग के आठ अंग होते हैं । उनमें से पहले दो अंगों 'यम व नियम' के बारे में हमने पहले भाग में बताया था अब शेष छः अंगों के बारे में पढ़िये:
1) आसन: लोग सबसे अधिक इसी अंग को देखते, जानते और करते हैं और बहुत से तो इसी को पूरा 'योग' समझते हैं । ये हमारे शरीर की इस प्रकार की विशेष मुद्राएँ हैं; जिनमें शरीर को लाना और कुछ क्षण रुकना, स्वस्थ्य के लिए कई प्रकार से लाभदायक होता है । योगासनों की विशेषता यह है कि ये शरीर कि मांस-पेशियों को ही नहीं अन्तः-स्रावी ग्रंथियों (Endocrine Glands) और कई महत्वपूर्ण आंतरिक अंगों जैसे फेफड़े, हृदय, किडनी, लिवर, मेरुदंड और आंतों को भी लाभ पहुंचाता है । इससे अप्रत्यक्ष रूप से मन-मश्तिष्क पर भी सकारात्मक असर पड़ता है ।
2) प्राणायाम: योग का यह चौथा अंग श्वांस-प्रश्वांस पर नियंत्रण करके, शरीर व मन पर नियंत्रण करने का अनूठा विज्ञान है । फेफड़ो की क्षमता बढ़ाने के साथ ही इसके भी बहु-आयामी प्रभाव हैं । इसमें पूरक (सांस भरना), रेचक (सांस छोडना), कुंभक (सांस रोकना); इन तीन स्थितियों की अवधि, क्रम, गति एवं संयोजन में विभिन्नता के द्वारा कई प्रकार की प्राणायाम क्रियाएँ बताई गई हैं ।
3) प्रत्याहार: इंद्रियों और मन को नियंत्रित या संयमित बनाने को ही प्रत्याहार कहा जाता है । विषय-वासनाओं से ध्यान हटाने और सत्य-ज्ञान, मोक्ष ईश्वर-साक्षात्कार जैसी उच्च कामनाओं के उत्कट होने पर ही ऐसी स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है ।
4) धारणा: मन को नियंत्रित कर, किसी एक ही विषय या क्रिया में पूरी तरह से लग जाने को धारणा कहा जाता है । स्थूल या सूक्ष्म, आंतरिक या बाह्य किसी भी वस्तु या विचार में मन को लगा देना ही धारणा है ।
5) ध्यान: धारणा का अभ्यास करते हुए, मन को एकाग्र करने या एकाग्रचित्त होने की सफल स्थिति को ध्यान कहा गया है । इसमें श्वांस-प्रश्वांस, किसी एक ध्वनि, आकृति, छवि या बिन्दु पर पूरी एकाग्रता लायी जाती है और फिर विचारहीनता की स्थिति भी लायी जाती है ।
6) समाधि: विचारहीनता के अच्छे अभ्यास के द्वारा समाधि की स्थिति प्राप्त होती है । ऐसा माना गया है कि, इस स्थिति के सफल होने पर अद्भुत या दिव्य अनुभव होते हैं । यही योग की चरम अवस्था है ।
धरम और कर्म के बीच बिलकुल भी नही करना चाहिए दिखावा