नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बॉलीवुड मूवी 'आंख मिचौली' से संबंधित कानूनी विवाद मामले पर सुनवाई करते हुए बड़ा फैसला सुनाया है। प्रमुख न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि फिल्म में दिखाए गए सीन और इसकी भाषा भेदभाव पूर्ण और दिव्यंगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली हैं। बता दें कि फिल्म पर दिव्यांगों का मजाक बनाने का आरोप लगाया गया था।
रिपोर्ट के अनुसार, आरोप लगया गया है कि फिल्म आँख मिचौली में दिव्यांगों का मजाक उड़ाते करते हुए उनके गरिमापूर्ण जीवन जीने और समानता के बुनियादी अधिकार का हनन किया गया है। शीर्ष अदालत ने फिल्मों में दिव्यांगजनों को दर्शाए जाने को लेकर भी दिशानिर्देश जारी किए हैं। अदालत ने कहा है कि दिव्यांगजनों के सामने मौजूद चुनौतियां, उनकी उपलब्धियां और समाज में उनके योगदान को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। फिल्म का संदेश क्या है, ये भी फिल्मकार या सीन क्रिएट करने वाले को पता रहना चाहिए। बता दें कि, सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार फिल्म, डॉक्यूमेंट्री और विजुअल मीडिया के लिए दिव्यांगजनों के हित में दिशानिर्देश जारी किए हैं।
अदालत ने कहा कि हम विजुअल मीडिया पर दिव्यांगों को दिखाए जाने के लिए एक रूपरेखा बना रहे हैं। तीन जजों की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा कि फिल्म प्रमाणन निकाय को स्क्रीनिंग की इजाजत देने से पहले विशेषज्ञों की सलाह लेनी चाहिए। रूढ़िवादिता गरिमा के विपरीत है और अनुच्छेद 14 के तहत भेदभाव है। कोर्ट ने अपने दिशानिर्देशों में कहा कि, संस्थागत भेदभाव को बढ़ावा देने वाले शब्द जैसे 'अपंग' आदि नकारात्मक छवि को जन्म देते हैं, इनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। रचनाकारों को 'रतौंधी' जैसी दिव्यांगता के संबंध में पर्याप्त चिकित्सा जानकारी की जांच करनी चाहिए, जो भेदभाव को बढ़ा सकती है, यह तथ्यों पर आधारित होना चाहिए, मिथकों पर नहीं। इसमें समान भागीदारी की जानकारी होनी चाहिए। दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए सम्मेलन में उनके अधिकार की वकालत करने वाले समूहों के परामर्श के बाद उन्हें चित्रित किया जाना चाहिए।
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