नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं की पहल का नहीं हुआ 'सू ची' पर कोई असर

म्यांमार। रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हुई हिंसा को रोकने के लिए अब नोबेल शांति पुरस्कार विजेता सामने आए हैं हालांकि इनकी अपील के बाद भी इस समुदाय के प्रति हिंसक घटनाऐं नहीं थमी हैं। मिली जानकारी के अनुसार आर्कबिशप डेसमेंउ टूटमू से लेकर मलाला यूसुफजई तक 12 नोबेल पुरस्कार विजेता स्टेट काउंसलर व नोबेल विजेता आंग सान सू ची से अपील करते रहे हैं मगर आंग सान सू ची के सत्ता में आने के बाद ही वे रोहिंग्या मुसलमानों को भूल गईं।

रोहिंग्या मुसलमान जो इस समय पलायन और हिंसक घटनाओं का सामना कर रहे हैं हालांकि हिंसक घटनाऐं म्यांमार में हुई हैं लेकिन बर्मा में भी मांग उठी कि उनके रक्षण के लिए  कुछ नहीं किया गया। उन्हें बर्मा का नागरिक माने जाने के समझौते के लिए कई तरह के प्रयास किए जा रहे थे मगर इस मामले में कोई पहल नहीं हुई साथ ही बड़ी चालाकी से इसे विभिन्न समूहों से बाहर कर दिया गया। मौजूदा समय में इस समुदाय के प्रति हुई हिंसा रूकी नहीं है। शांति की यह अपील सू ची ने इस तरह से की है जैसे उनके पिता आंग सान किया करते थे।

वर्ष 1947 में पांगलाॅन्ग वार्ता में रोहिंग्या प्रतिनिधियों को निमंत्रित नहीं किया गया। यह भी कहा गया कि अराकान या रखाईन प्रांत दक्षिण पूर्व एशिया में चलने वाली लड़ाई के तहत सबसे आगे था। दरअसल बरखाईन में बौद्धों ने संघर्ष में साथ दिया। वर्ष 1950 में रोहिंग्या समुदाय के लोगों को बर्मा का नागरिक मानने के समझौतों हेतु प्रयास किए गए थे। बर्मा को लेकर जो बात की गई थी उसके तहत बर्मा में 144 जातीय समूहों की पहचान हुई।

हालांकि बाद में 135 समूह ही शेष थे। इन समूहों से रोहिंग्या को अलग कर दिया गया। इस तरह से रोहिंग्या मुसलमान बर्मा का नागरिक होने के बाद भी समूह से दूर हो गए। इन दिनों रोहिंग्या मुसलमानों को विश्व के कई क्षेत्रों में संघर्ष करना पड़ रहा है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को पलायन का सामना करना पड़ा।

जब ये बांगलादेश की ओर भागने लगे तो इन्हें यहाॅं से फिर म्यांमार की ओर खदेड़ना पड़ा। अमेरिका में एलाइन टाॅर्ट्स क्लेम्स एक्ट के अंतर्गत सू ची व सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के विरूद्ध प्रकरण दर्ज किए जाने की अपील की गई। जापान पर दबाव बनाए जाने की मांग भी की और कहा गया कि बर्मा पर प्रतिबंध लगाया जाए।

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